नई दिल्ली: साल 2020 में हुए दिल्ली दंगे राजधानी के इतिहास का वह काला अध्याय हैं जिसे भुलाना मुश्किल है। हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के लोग मारे गए, लेकिन असली नुकसान इंसानियत का हुआ। अब दंगों के बाद दर्ज मामलों की अदालतों में हो रही सुनवाई ने दिल्ली पुलिस की कार्यशैली पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।
आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, इन दंगों से जुड़े कुल 695 मामले दर्ज हुए, जिनमें से 116 मामलों में फैसले आ चुके हैं। इनमें 97 मामलों में आरोपी बरी हो गए, क्योंकि उनके खिलाफ कोई ठोस सबूत पेश नहीं किया जा सका, जबकि केवल 19 मामलों में ही दोषसिद्धि हो पाई। खास बात यह है कि अदालत ने 17 मामलों में पाया कि पुलिस ने निर्दोष लोगों को फंसाने के लिए झूठे गवाह और फर्जी सबूत तैयार किए।
कई मामलों में कोर्ट ने कहा कि पुलिस ने गवाहों पर दबाव डाला, बयान में हेरफेर की या फिर सबूतों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया। कुछ मामलों में न्यायाधीशों ने रिकॉर्ड में छेड़छाड़ की आशंका भी जताई। अदालतों ने टिप्पणी की कि इस तरह की जांच न्याय सुनिश्चित करने के बजाय सिर्फ “मामला बंद करने” पर केंद्रित दिखती है, जिससे कानून पर जनता का भरोसा कम होता है।
उदाहरण के तौर पर, न्यू उस्मानपुर थाने में दर्ज एक मामले में छह आरोपियों को बरी करते हुए अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने कहा कि जांच अधिकारी ने सबूतों को बेहद अतिरंजित तरीके से पेश किया, जिससे आरोपियों के अधिकारों का गंभीर हनन हुआ।
इन 17 मामलों में से सबसे ज्यादा पांच केस दयालपुर में, चार-चार खजूरी खास और गोकुलपुरी में, जबकि ज्योति नगर, भजनपुरा, जाफराबाद और न्यू उस्मानपुर में एक-एक केस दर्ज थे।
फरवरी 2020 में नागरिकता संशोधन कानून (CAA) के खिलाफ प्रदर्शन के दौरान उत्तर-पूर्वी दिल्ली में भड़के दंगों में कम से कम 53 लोगों की जान गई और 700 से अधिक लोग घायल हुए। दंगे न केवल दिल्ली की छवि को दागदार कर गए बल्कि अब पुलिस जांच में सामने आई कमियां न्याय और जवाबदेही दोनों पर सवाल खड़े कर रही हैं।
कुल मिलाकर, अदालतों के फैसले इस बात को उजागर करते हैं कि दंगे रोकने में नाकामी के साथ-साथ बाद की जांच प्रक्रिया भी गंभीर सवालों के घेरे में है, और यह मुद्दा अभी भी दिल्ली पुलिस की साख पर गहरे दाग की तरह मौजूद है।