नई दिल्ली: दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण को नियंत्रित करने के नाम पर सरकार द्वारा कोयला और लकड़ी से चलने वाले तंदूरों पर प्रतिबंध लगाए जाने के फैसले ने ज़मीनी स्तर पर एक नई बहस छेड़ दी है। इस फैसले से न सिर्फ छोटे ढाबे, ठेले और मध्यम वर्गीय रेस्टोरेंट प्रभावित हुए हैं, बल्कि आम आदमी की रोज़मर्रा की ज़िंदगी पर भी इसका सीधा असर पड़ता दिख रहा है।
सरकार का तर्क है कि यह कदम राजधानी में AQI को 500 से नीचे लाने के उद्देश्य से उठाया गया है। इसके तहत पारंपरिक तंदूरों को बंद कर इलेक्ट्रिक या गैस-आधारित तंदूरों को अनिवार्य किया गया है। नियमों का उल्लंघन करने पर जुर्माने और कार्रवाई की चेतावनी भी दी गई है।
ज़मीनी हकीकत: जनता का सवाल
ग्राउंड रिपोर्ट में आम नागरिकों और रेस्टोरेंट संचालकों ने सरकार के फैसले पर नाराज़गी जताई है। उनका कहना है कि—
- तंदूर से होने वाला प्रदूषण नगण्य है
- असली प्रदूषण का स्रोत डीज़ल वाहन, ट्रक, निर्माण धूल और इंडस्ट्रियल एमिशन हैं
- छोटे व्यापारियों और दिहाड़ी मजदूरों की रोज़ी पर सीधा असर पड़ा है
एक ढाबा संचालक ने कहा,
“फाइव-स्टार होटल तो इलेक्ट्रिक तंदूर लगा लेंगे, लेकिन ठेले वाला क्या करेगा?”
स्वाद और संस्कृति पर भी असर
तंदूरी रोटी, नान, चिकन, मोमोज जैसे व्यंजन दिल्ली की स्ट्रीट-फूड पहचान हैं। कोयला और लकड़ी से मिलने वाला पारंपरिक स्वाद अब खत्म होने की कगार पर है, जिसे गैस या इलेक्ट्रिक विकल्प पूरी तरह रिप्लेस नहीं कर पा रहे।
एक्सपर्ट्स की राय
पर्यावरण विशेषज्ञों का मानना है कि तंदूर बैन प्राथमिकता में नहीं होना चाहिए था।
उनके अनुसार—
- वाहन उत्सर्जन
- थर्मल पावर प्लांट
- सड़क की धूल
- कंस्ट्रक्शन गतिविधियाँ
ये सभी प्रदूषण के बड़े स्रोत हैं, जिन पर कठोर कार्रवाई ज़्यादा प्रभावी होती।
बड़ा सवाल
क्या AQI 450–500 के लिए तंदूर जिम्मेदार हैं,
या फिर यह फैसला सबसे कमजोर आय वर्ग को निशाना बनाने जैसा है?
प्रदूषण एक गंभीर समस्या है, लेकिन समाधान संतुलित, वैज्ञानिक और सामाजिक रूप से न्यायपूर्ण होना चाहिए।
तंदूर बैन जैसे फैसले तब तक सवालों के घेरे में रहेंगे, जब तक बड़े प्रदूषण स्रोतों पर समान सख्ती नहीं दिखाई देती।

